भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code - CPC SECTION 1 TO 9


भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code - CPC SECTION 1 TO 9


भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code - CPC) भारत की एक महत्वपूर्ण विधिक संहिता है, जो सभी नागरिक वादों की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को सरल, स्पष्ट और प्रभावी बनाना है ताकि आम नागरिकों को उनके अधिकारों की रक्षा के लिए निष्पक्ष और शीघ्र न्याय प्राप्त हो सके। आइए इस कानून की शुरुआत और धारा 1 और 2 की विस्तृत जानकारी समझते हैं




सीपीसी की उत्पत्ति और उद्देश्य:

सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) 1908 में लागू की गई थी और यह 1 जनवरी 1909 से प्रभाव में आई। इस संहिता को लाने का मुख्य उद्देश्य भारत में नागरिक मामलों में समान और एकसमान प्रक्रिया उपलब्ध कराना था। इससे पहले अलग-अलग प्रांतों में अलग नियम चलते थे जिससे न्यायिक प्रणाली में असमानता थी।

इस कानून को विशेष रूप से निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर लागू किया गया:

  • नागरिक अधिकारों की सुरक्षा

  • वादों की निष्पक्ष सुनवाई

  • न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता

  • अनावश्यक देरी से बचाव


CPC SECTION 1 TO 9





धारा 1 – संक्षिप्त शीर्षक, प्रारंभ और विस्तार (Short Title, Commencement, and Extent)

प्रमुख बिंदु:


  1. संक्षिप्त शीर्षक (Short Title): इस अधिनियम को "सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908" कहा जाएगा।

  2. प्रारंभ (Commencement): यह संहिता 1 जनवरी 1909 से पूरे भारत में लागू हुई।

  3. क्षेत्र विस्तार (Extent): प्रारंभ में यह संहिता जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं थी, लेकिन 2019 के बाद हुए संवैधानिक संशोधनों और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के बाद इसे वहां भी लागू कर दिया गया है।

  4. अपवाद (Exceptions): यह संहिता आदिवासी क्षेत्रों और नागालैंड जैसे राज्यों के कुछ क्षेत्रों में लागू नहीं होती, विशेषकर वे क्षेत्र जो 21 जनवरी 1972 से पहले असम के अधीन थे और संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत आते हैं।



धारा 2 – परिभाषाएँ (Definitions)

धारा 2 में सिविल प्रक्रिया संहिता में प्रयुक्त महत्वपूर्ण शब्दों और अवधारणाओं की परिभाषा दी गई है। ये परिभाषाएँ संहिता की व्याख्या और उसके अनुप्रयोग में सहायक होती हैं।



महत्वपूर्ण परिभाषाएँ:

  1. Code includes Rules: यह संहिता अपने अंतर्गत सभी नियमों और प्रक्रियाओं को शामिल करती है

  2. Decree (डिक्री): अदालत द्वारा दो या अधिक पक्षों के बीच विवाद को लेकर दिया गया अंतिम और अधिकारिक निर्णय।

    • Preliminary Decree: जब कोई कार्यवाही बाकी रहती है।

    • Final Decree: जब पूरा विवाद सुलझा दिया गया हो।

    उदाहरण: यदि अदालत किसी संपत्ति के अधिकार पर फैसला सुनाती है, तो वह डिक्री कहलाती है।

  3. Decree Holder: वह व्यक्ति जिसके पक्ष में अदालत ने डिक्री सुनाई हो। अगर डिक्री का पालन न हो तो वह उसे लागू कराने के लिए आवेदन दे सकता है।

  4. District: वह न्यायिक इकाई जो एक जिले की सीमा में कार्य करती है।

  5. Foreign Court: वह अदालत जो भारत के बाहर स्थित है।

  6. Foreign Judgment: विदेशी अदालत द्वारा दिया गया निर्णय।

  7. Government Pleader: सरकारी वकील जो सरकार की ओर से न्यायालय में तर्क प्रस्तुत करता है।

  8. High Court Jurisdiction: जैसे अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के लिए कोलकाता उच्च न्यायालय की न्यायिक शक्ति लागू होती है।

  9. Excepted Sections: कुछ धाराएं जैसे धारा 1, 29, 43, 44, 78, 79 आदि जम्मू-कश्मीर जैसे विशेष क्षेत्रों पर अलग रूप से लागू होती हैं।

  10. Judge: वह व्यक्ति जो न्यायिक प्रक्रिया का संचालन करता है और निर्णय देता है।

  11. Judgment: न्यायाधीश द्वारा दिया गया निर्णय जो आदेश या डिक्री को स्पष्ट करता है।

  12. Judgment Debtor: वह व्यक्ति जिसके खिलाफ अदालत ने फैसला सुनाया है।

  13. Legal Representative: वह व्यक्ति जो मृतक की संपत्ति पर कानूनी अधिकार रखता है और अदालत में उस अधिकार की रक्षा करता है।

  14. Profit: वह लाभ जो किसी संपत्ति पर अनधिकृत कब्जे के माध्यम से प्राप्त किया गया हो।

  15. Movable Property: वह संपत्ति जिसे एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जा सकता है जैसे वाहन, फसलें आदि।

  16. Order: अदालत का एक आदेश जो दस्तावेज के रूप में होता है। यह निर्णय से भिन्न होता है।

  17. Pleader: वह व्यक्ति जो किसी अन्य की ओर से अदालत में पेश होकर मुकदमा लड़ता है।

  18. Prescribed: जो चीजें या प्रक्रिया नियमों द्वारा पूर्व-निर्धारित की गई हो।

  19. Public Officer: वे अधिकारी जो जनता की सेवा में कानून द्वारा नियुक्त किए गए हैं, जैसे:

    • प्रत्येक न्यायाधीश

    • ऑल इंडिया सर्विस के सदस्य

    • सेना, नौसेना या वायुसेना के अधीन गजेटेड ऑफिसर

  20. Rules: वे नियम और फॉर्म जो First Schedule में हैं या धारा 122, 125 के तहत बनाए गए हैं। ये न्यायिक प्रक्रिया को विनियमित करते हैं।

  21. Signed: दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर जो उसकी वैधता को दर्शाते हैं। कुछ मामलों में न्यायालय के आदेश बिना हस्ताक्षर के भी मान्य हो सकते हैं।


धार 6,7,8,9 क्या है ?



भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code - CPC) भारत में सिविल न्याय प्रक्रिया की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। यह संहिता नागरिक मामलों में अदालतों के कामकाज को विनियमित करती है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि हर नागरिक को उसके अधिकारों की रक्षा हेतु एक उचित और पारदर्शी प्रक्रिया उपलब्ध हो। इस लेख में हम CPC की महत्वपूर्ण धाराओं – धारा 6, 7, 8, 9 और महाराष्ट्र राज्य के विशेष संशोधन धारा 9A – को विस्तार से समझेंगे।



धारा 6 – आर्थिक क्षेत्राधिकार (Pecuniary Jurisdiction)

उद्देश्य:

धारा 6 अदालतों की आर्थिक सीमा को परिभाषित करती है। इसका अर्थ यह है कि हर अदालत को केवल उतने मूल्य तक के मामलों की सुनवाई का अधिकार होता है, जितना उसकी आर्थिक सीमा में आता है। यदि कोई वाद उस सीमा से बाहर है, तो संबंधित अदालत उसे सुनवाई के लिए स्वीकार नहीं कर सकती।


मुख्य बिंदु:

  1. सामान्य नियम: जब तक किसी अन्य कानून में कुछ विशेष रूप से न कहा गया हो, तब तक अदालतों को केवल उन्हीं मामलों की सुनवाई करनी चाहिए जो उनकी क्षेत्रीय और आर्थिक सीमाओं में आते हों।

  2. वित्तीय सीमा का महत्व: यदि कोई सिविल वाद बहुत बड़ी राशि से संबंधित है, तो उसकी सुनवाई उच्च मूल्य सीमा वाली अदालत में ही की जाएगी। यह प्रणाली न्यायिक दक्षता और न्यायिक पदानुक्रम को बनाए रखने में सहायता करती है।



धारा 7 – प्रांतीय छोटे कारण अदालतें (Provincial Small Cause Courts)

उद्देश्य:

धारा 7 विशेष रूप से प्रांतीय छोटे कारण अदालतों (Provincial Small Cause Courts) और बरार छोटे कारण अदालतों (Berar Small Cause Courts) के लिए लागू होती है। यह धारा स्पष्ट करती है कि CPC की कौन-सी धाराएं इन अदालतों पर लागू नहीं होंगी।


प्रमुख बिंदु:

  1. अपवाद सूची:

    • Provincial Small Cause Courts Act, 1887 के तहत बनी अदालतों पर कुछ धाराएं लागू नहीं होतीं।

    • Berar Small Cause Courts Act, 1905 के तहत बनी अदालतों पर भी इन्हीं अपवादों का पालन होता है।

  2. सीमित अधिकार क्षेत्र:

    • ये अदालतें केवल विशेष प्रकार के छोटे दावों की सुनवाई करती हैं।

    • अचल संपत्ति जैसे विषयों पर ये अदालतें अधिकार क्षेत्र से बाहर होती हैं।

  3. भौगोलिक विस्तार: यदि किसी अदालत का गठन उपरोक्त अधिनियमों के तहत नहीं हुआ है लेकिन वह समान अधिकार क्षेत्र का उपयोग कर रही है, तो उस पर भी ये अपवाद लागू हो सकते हैं।

  4. प्रभावित धाराएं:

    • धारा 9, 91, 92 – सिविल अधिकारों और विशेष आदेशों से संबंधित

    • धारा 94, 95 – निषेधाज्ञा, रिसीवर की नियुक्ति आदि

    • धारा 96 से 112 और 115 – अपील और पुनरीक्षण आदेशों से संबंधित




भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code - CPC) भारत की न्यायिक प्रणाली की एक महत्वपूर्ण आधारशिला है। यह संहिता सिविल (नागरिक) मामलों की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है और यह सुनिश्चित करती है कि हर नागरिक को उसके अधिकारों की रक्षा के लिए निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया मिले। इस लेख में हम CPC की दो बेहद जरूरी धाराओं – धारा 8 और धारा 9 – को विस्तार से समझेंगे। इसके साथ ही हम महाराष्ट्र राज्य द्वारा लागू विशेष धारा 9A को भी स्पष्ट करेंगे।


धारा 8 – CPC और Presidency Small Causes Courts Act का संबंध

उद्देश्य:

धारा 8 का उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि कुछ विशेष धाराएं CPC की "Presidency Small Causes Courts" पर तब तक लागू नहीं होंगी जब तक कि उच्च न्यायालय विशेष अधिसूचना (notification) के माध्यम से ऐसा निर्देश न दें। यह धारा मुख्य रूप से कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में स्थित उन अदालतों पर लागू होती है जो छोटे दावों (small causes) की सुनवाई करती हैं।

प्रमुख बिंदु:

  1. सीमित धाराएं लागू:
    निम्नलिखित धाराएं सीधे तौर पर Small Causes Courts में लागू नहीं होतीं:

    • धारा 24 (स्थानांतरण और वापसी)

    • धारा 38 से 41 (डिक्री का निष्पादन)

    • धारा 75, 76, 77 (आयोग से संबंधित प्रावधान)

    • धारा 157 और 158

  2. उच्च न्यायालय की शक्ति:
    Bombay, Madras और Calcutta के उच्च न्यायालयों को यह अधिकार है कि वे अधिसूचना के जरिए यह तय करें कि कौन-से प्रावधान उन अदालतों में लागू होंगे और कौन-से नहीं। यह अधिकार समय-समय पर प्रयोग किया जा सकता है।

  3. पूर्ववर्ती नियमों की मान्यता:
    यदि इस धारा के लागू होने से पहले कोई नियम प्रभावी था, तो उसे तब तक वैध माना जाएगा जब तक कि उसे विशेष रूप से निरस्त न किया जाए।



धारा 9 – सिविल न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र (Jurisdiction)

क्या है धारा 9?

यह धारा नागरिक प्रकृति (civil nature) के सभी मामलों में न्यायालय के अधिकार को मान्यता देती है। जब तक किसी विशेष कानून द्वारा स्पष्ट रूप से रोक न लगाई जाए, तब तक सिविल न्यायालयों को सभी नागरिक मामलों की सुनवाई का अधिकार होता है।

मुख्य विशेषताएं:

  1. विस्तृत अधिकार क्षेत्र:
    कोई भी व्यक्ति जिसके नागरिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है – जैसे संपत्ति, प्रतिष्ठा, पारिवारिक संबंध, अनुबंध आदि – वह सिविल न्यायालय की शरण ले सकता है।

  2. प्रतिबंध कब लागू होता है:
    यदि किसी विशेष कानून में स्पष्ट रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से कहा गया है कि सिविल अदालत उस प्रकार के मामलों की सुनवाई नहीं कर सकती, तभी न्यायालय उसका संज्ञान नहीं ले सकता।

  3. धार्मिक अधिकार भी शामिल:
    यदि किसी धार्मिक परंपरा से संबंधित विवाद है, लेकिन वह विवाद कानूनी अधिकारों के उल्लंघन का कारण बनता है, तो वह सिविल न्यायालय में सुनवाई योग्य है।

  4. आर्थिक लाभ या शुल्क अप्रासंगिक:
    चाहे किसी अधिकार से प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ जुड़ा हो या नहीं, यदि वह एक वैधानिक अधिकार है और उसका उल्लंघन हुआ है तो सिविल मुकदमा दायर किया जा सकता है।



उदाहरण:

  • अगर किसी को मंदिर में प्रवेश से रोका जाता है, तो यह अधिकार का हनन है और सिविल कोर्ट में मामला दायर किया जा सकता है।

  • यदि कोई व्यक्ति किसी संस्था की सदस्यता से हटाया गया है, और वह वैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन है, तो भी सिविल कोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है।


धारा 9A – महाराष्ट्र राज्य का विशेष संशोधन

क्या है धारा 9A?

महाराष्ट्र सरकार ने CPC में धारा 9A जोड़ी है जो एक विशेष प्रक्रिया बताती है जब मुकदमे के बीच में न्यायालय की अधिकारिता पर आपत्ति उठाई जाती है, विशेष रूप से जब अंतरिम राहत (interim relief) मांगी गई हो।

प्रमुख बिंदु:

  1. प्राथमिक मुद्दा:
    यदि कोई पक्ष अदालत की अधिकारिता पर प्रश्न उठाता है, तो यह मुद्दा सबसे पहले तय किया जाना चाहिए। इसे preliminary issue माना जाएगा।

  2. त्वरित सुनवाई की अनिवार्यता:
    अदालत को आदेश दिया गया है कि वह इस मुद्दे का शीघ्र निपटारा करे ताकि मुकदमे की प्रक्रिया अनावश्यक रूप से लंबी न हो।

  3. अंतरिम राहत की अनुमति:
    भले ही अधिकारिता का मुद्दा लंबित हो, यदि मामला अत्यंत आवश्यक हो तो अदालत अंतरिम राहत प्रदान कर सकती है।

  4. प्रभाव:
    यह प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया को अधिक व्यावहारिक बनाता है। साथ ही, यह सुनिश्चित करता है कि अदालत की अधिकारिता स्पष्ट हो जाए, जिससे बाद की कार्यवाही बाधित न हो।



निष्कर्ष

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 1 और 2, इस कानून की आधारशिला हैं। धारा 1 इसके नाम, प्रभाव और क्षेत्र को स्पष्ट करती है, जबकि धारा 2 महत्वपूर्ण शब्दों की परिभाषा प्रदान कर प्रक्रिया की समझ को सरल बनाती है। यदि आप कानून के छात्र, प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं या न्यायिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं, तो इन धाराओं की अच्छी समझ आपके लिए अनिवार्य है।


भारतीय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 8, 9 और 9A नागरिक मामलों की सुनवाई में पारदर्शिता, सुविधा और अधिकारिता की स्पष्टता सुनिश्चित करती हैं।

  • धारा 8 छोटे मामलों की अदालतों को विशेष प्रक्रिया प्रदान करती है।

  • धारा 9 नागरिक अधिकारों के संरक्षण की गारंटी देती है।

  • धारा 9A मुकदमों की न्यायिक प्रक्रिया को व्यावहारिक और तेज बनाती है।

किसी भी कानून विद्यार्थी, वकील या आम नागरिक के लिए इन धाराओं का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है, ताकि वह अपने अधिकारों को सही प्रकार से समझ सके और जरूरत पड़ने पर न्यायालय की सहायता ले सके।

यह लेख CPC की बुनियादी अवधारणाओं को सरल भाषा में समझाने का प्रयास है ताकि कोई भी व्यक्ति इसे आसानी से समझ सके।

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